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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया


जहाँगीर नगर विश्वविद्यालय के दो-दो छात्रावास के सुपरिटेंडेंट ने छात्राओं के अभिभावकों को इन दिनों एक खत भेजा है! खत कुछ यूँ है-जहाँगीर नगर विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं के आवास और नियम अध्यादेश के द्वितीय पर्व की धारा 4 में उल्लेख है कि शाम 6.30 बजे और साल के बाकी वक्त, शाम 5.30 बजे, छात्रावास के प्रवेश-द्वार बंद कर दिए जाएँ और छात्रावास के अधिकारियों की पूर्वानुमति बिना, उल्लिखित समय-सीमा के बाद छात्रावास की कोई भी छात्रा, बाहर नहीं रह सकती। छात्राओं की सुरक्षा का ख्याल रखते हुए, यह नियम लंबे अर्से से जारी रखा गया है। लेकिन आजकल चंद छात्राएँ, सैकड़ों बहाने से छात्र-छात्राओं के समान अधिकार प्रतिष्ठा के नाम पर छात्रावास का प्रवेश-द्वार रात नौ बजे तक और किसी-किसी दिन रात दस-ग्यारह बजे तक खुला रखने की माँग कर रही हैं।

पहले तो यही देखकर अचरज होता है कि विश्वविद्यालय की छात्राओं के लिए, छात्रावास में लौटने की समय-सीमा निर्धारित की गई है। वे लोग ठहरी विश्वविद्यालय की छात्राएँ। किसी किंडरगार्डेन की बच्ची नहीं हैं। वे लोग न रास्ता भूलनेवाली हैं, न ही सड़क पार करते हुए, गाड़ी तले आने की आशंका है (आमतौर पर यह भय बच्चों के संदर्भ में होता है)! वे लोग बालिग लड़कियाँ हैं। अपनी हिफाजत के बारे में काफी सजग हैं। इसके अलावा उनका भी मन हो सकता है न कि वे लोग लाइब्रेरी में लिखाई-पढ़ाई करें? लाइब्रेरी तो रात आठ बजे तक खुली रहती है, जहाँ उनके सहपाठी लड़के आराम से लिख-पढ़ सकते हैं। अब, लड़कियों का अगर मन करे कि किसी साथी या बंधु-बांधव के साथ खुली हवा में सैर-तफरीह करें? गप-शप करें? या ऐसा भी हो सकता है कि किसी के साथ नहीं, वह अकेली-अकेली ही शाम को टहलने निकल पड़ें? कहीं बैठकर धुंधुवाती चाय पीएँ? लड़की के मन में ऐसी चाह जाग ही सकती है! आखिर वह भी इंसान है। जीवन में ऐसी चाह जागना सरासर संभव है! इंसान गाय-बकरी या मुर्गी नहीं है, जो शाम होते ही उन लोगों को तबेले में ढूंस दिया जाए। अगर लड़कों के लिए ऐसा तबेला बनाया जाए, तो वे लोग क्या कबूल कर लेंगे? मुझे पक्का विश्वास है कि वे लोग नहीं मानेंगे। विश्वविद्यालय की छात्राएँ क्या छात्रों की तरह मेधावी नहीं हैं? वे लोग क्या विश्वविद्यालय में कुछ निम्न स्तर की पढ़ाई-लिखाई करती हैं? हरगिज नहीं!

विश्वविद्यालय में आखिर कौन लोग पढ़ने आते हैं? बेशक, मेधावी, संस्कारयुक्त, उच्चाकांक्षी लड़कियाँ ! उन लोगों के बारे में ऐसी आपत्तिजनक उक्ति जुबान पर लाने का हक, किसी भी सुपरिटेंडेंट को नहीं होना चाहिए। आखिर मैं भी औरत हूँ। औरत की यह बेइज्जती मुझे बेतरह आहत करती है। मेरे ख्याल से यह किसी भी स्वस्थ-सजग औरत के लिए चरम अपमान की बात है! छात्राएँ बहाने बनाती हैं, छात्र-छात्राओं के समान अधिकार प्रतिष्ठा का वास्ता देते हुए वे लोग माँग पेश करती हैं-सुपरिटेंडेंट के ये मंतव्य सुनकर, ऐसा लगता है, जैसे छात्राओं का छात्रों के समान अधिकार की माँग मानो कोई बहुत बड़ा गुनाह है, मानों जो औरतें यह माँग करती हैं, वे महापापी हैं। उन लोगों ने इस समाज की नज़र में विश्वविद्यालय के कानून के प्रति अत्यंत नीच कर्म किया है। ये अध्यक्ष लोग देश के सर्वोच्च विद्यापीठ के आसन। पर बैठे-बैठे, औरत मर्द के समान अधिकार की माँग पर करारा व्यंग्य करने में बिल्कुल। नहीं हिचकिचाते।

खत में यह भी लिखा गया है-'लड़के चूँकि नौकरी करते हैं या ट्यूशन करके लौटने में देर हो जाती है, सांस्कृतिक-कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं, इसलिए यह सरासर उचित है कि वे रात तक लाइब्रेरी में लिखाई-पढ़ाई करें! यानी कई-कई तरह की वजह दिखाई जाती हैं हालाँकि पिछले काफी दिनों से यह बात गौर की गई है कि कुछेक छात्र-छात्राएँ, सांस्कृतिक कार्यक्रम का बहाना बनाकर रात दस-बारह बजे तक छात्रावास से बाहर रहते हैं और किसी कार्यक्रम वगैरह में जाने के बजाय काफी रात तक जनपद से बाहर किसी रिहायशी इलाके के ओने-कोने में इकट्ठे बैठे, वक्त गजारने में मगन रहते हैं। रिहायशी इलाकों में यह सब राग-रंग देखकर कैम्पस कमेटी ने काफी दिनों पहले, लिखित तौर पर एतराज किया है। छात्राओं को जैसे ढाका में ट्यूशन करने, लाइब्रेरी में पढ़ने-लिखने, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने का अधिकार है, उसी तरह उन्हें यह अधिकार भी है कि वे लोग किसी के साथ निर्जन में बैठकर या रिहायशी इलाके के बाहर जाकर, खुलेआम या किसी ओने-कोने में बैठकर मित्र या प्रेमी के साथ गपशप करें उन्हें कोई बहाना बनाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? उन्हें अपनी मर्जी मुताबिक कहीं जाने का अधिकार क्यों नहीं है? जन-बस्ती के बाहर, किसी रिहायशी इलाके के ओने-कोने में बैठकर गपशप करने को ये अधिकारी बेहद घृणा की निगाहों से देखते हैं। मेरा सवाल है कि औरत अगर चाहती है कि किसी कोने में बैठकर वह किसी से बातें करे, तो अधिकारी वाधा क्यों देते हैं? वे लोग छात्रों को किसी ओने-कोने में जाने से कभी रोकते हैं? मेरी राय में छात्राओं की व्यक्ति-स्वाधीनता में हस्तक्षेप करने का हक, विश्वविद्यालय के अधिकारियों को नहीं है।

छात्राओं की सुरक्षा में कौन लोग बाधा डालते हैं? छात्र? अगर छात्र उनकी सुरक्षा में रोड़े बने हुए हैं, तो पहले पता करना होगा कि इस बारे में विश्वविद्यालय की छात्राओं ने अधिकारियों से कोई शिकायत की है या नहीं! अगर शिकायत न भी की हो, तो अधिकारी खुद आगे बढ़कर उनको सुरक्षा दे रहे हैं या नहीं? अगर यह शिकायत उठती है कि छात्रों की वजह से छात्राओं की सुरक्षा नष्ट हो रही है, तो इसके प्रतिकार में छात्रावास शाम से ही बंद कर देना चाहिए? या अपराधी छात्रों के खिलाफ कार्रवाई करना चाहिए? मुझे पक्का विश्वास है कि कोई भी विवेकवान, युक्तिवादी इंसान अपराधियों के खिलाफ की गई कार्रवाई को संगत मानेंगे या फिर किसी छात्र के बजाय अपराधी कोई बाहरी व्यक्ति हो, अगर कोई संन्यासी, औरतों की सुरक्षा में बाधा डालता है, तथा मेरी राय में अधिकारियों को चाहिए कि सुरक्षा में बाधा डालने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करें। इस समस्या का समाधान यह नहीं है कि औरतों को दरबे में ठूंस दिया जाए। यह असंभव है।

मैंने यह भी सुना है कि विज्ञान विभाग की छात्राओं को प्रयोगशाला में काम करने या परीक्षा से पहले, रात को लाइब्रेरी में पढ़ने-लिखने की सख्त ज़रूरत महसूस होती है, लेकिन उन लोगों के लिए यह संभव नहीं होता। जबकि छात्रों के लिए यह आराम से संभव है। छात्राएँ अगर रात के वक्त लाइब्रेरी जाना चाहें, तो उन्हें अधिकारियों से लिखित अनुमति लेना होगी। विश्वविद्यालय की छात्राओं के लिए इस हैरानी का कोई मतलब नहीं होता। छात्राओं के जरिए विश्वविद्यालय में कोई हादसा हुआ हो, अब तक ऐसी कोई खबर नहीं सुनी। लेकिन जिन छात्रों ने कोई ज़लील हरकत की, वे आज भी बहाल तबीयत घूम-फिर रहे हैं। उन लोगों के लिए छात्र-हॉस्टल लौटने की कोई समय-सीमा नहीं बाँधी गई है। जो लोग कोई अनिष्ट नहीं करते, बस, उन्हें ही कैदखाने में ठूस दिया जाता है! विश्वविद्यालय के अधिकारी अगर सुरक्षा के नाम पर औरतों को कैद रखने का इंतज़ाम करें तो क्या ऐसे ही नियम बनने चाहिए कि तमाम निरीह और जुल्म के शिकार लोगों को बंदी बना लिया जाए और संन्यासी और निर्यातनकारियों को समाज में छोड़ दिया जाए? इससे क्या मूल समस्या का समाधान हो जाएगा? छात्राओं की सुरक्षा के बारे में अधिकारी वर्ग जितने फिक्रमंद हैं, छात्राएँ उतनी नहीं हैं। अधिकारियों को चाहिए कि जो सुविधाएँ, छात्रों को दी जाती हैं, उसी किस्म की सुविधाएँ छात्राओं को भी दें; छात्राओं की मेधा और प्रतिभा का सम्मान किया जाए, छात्राओं को इंसानों में गिना जाए। यह सब न करके, सुरक्षा का झूठा वास्ता देते हुए, उन लोगों की व्यक्ति-स्वाधीनता में हस्तक्षेप करना, बेशक सभ्यता-विरोधी काम है। छात्रावास और विश्वविद्यालय प्रशासन ने विश्वविद्यालय के सिनेट हाल में, छात्राओं का हॉस्टल शाम को ही बंद कर देने के मामले में, अभिभावकों से सलाह-मशविरा किया। ये लोग अभिभावकों को बुलाकर, उनकी बहन-बेटियों के खिलाफ शिकायतें करना चाहते हैं। लेकिन जिस देश में अभिभावक अपनी बेटियों को लिखाई-पढ़ाई ही नहीं करने देना चाहते। मध्यवित्त पुरातनपंथी परिवारों की लड़कियाँ तो बाकायदा लड़-भिड़कर विश्वविद्यालय में पढ़ने आती हैं, वहाँ अभिभावकों से उनकी बेटियों की सुरक्षा के बारे में परेशानी व्यक्त करने पर, जाहिर है कि अभिभावक परेशान होंगे। नतीजा यह होगा कि वे लोग अपनी बहन-बेटियों को विश्वविद्यालय में पढ़ाने को उत्साहित नहीं होंगे। यह समाज के लिए भला होगा या बुरा?

विश्वविद्यालय की छात्राओ, आप लोग आंदोलन करें। सिर्फ जहाँगीरनगर विश्वविद्यालय ही नहीं, किसी भी विश्वविद्यालय के छात्रावास में छात्राओं को लौटने के लिए कोई समय-सीमा न बाँधी जाए। लड़कियों को कोई वजह न वताना पड़े कि छात्रा को बाहर क्यों जाना है? क्यों उन्हें लौटने में रात होगी? हादसा कोई होना होगा, तो दिन के वक्त भी हो सकता है। इंसानों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है। छात्रावास और विश्वविद्यालय प्रशासन, वह जिम्मेदारी खुद सम्हालकर, लड़कियों को छात्रावास में कैद कर रहे हैं। मेरा मतलब है कि वे लोग औरतों की व्यक्तिस्वाधीनता नष्ट कर रहे हैं! छात्राएँ अब अपने को और बेइज़्जत नहीं होने देंगी। ऐसा मैं उम्मीद करती हूँ और विश्वास भी करती हूँ! जिन प्रोफेसरों या संचालकों ने छात्रावास के दरवाजे शाम को ही बंद कर देने का फतवा जारी किया है, उनमें और देशव्यापी नारी-हत्यारे, फतवाबाज़ मौलानाओं में कहीं, कोई फर्क नहीं है। फर्क सिर्फ एक है, मौलाना कुर्ता-टोपी-पायजामा पहनते हैं, प्रोफेसर शर्ट-पैंट। वे लोग देखने में तो मानुष जैसे ही लगते हैं मगर अंदर से सर्वाधिक अमानुष हैं।


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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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